स्पर्श का श्राप/स्वीटी

उस रात अंधेरों ने सब छीन लिया,
मेरे अस्तित्व को चुपचाप मिटा दिया।
वो हाथ, जो सहारा बन सकते थे,
मेरे स्वाभिमान को कुचल गए थे।

चीखें मेरी खामोशियां बन गईं,
आंखों के समंदर सूख गए वहीं।
क्या उसका स्पर्श बस भूख थी?
ममता और मानवीयता से दूर थी।

वो अंधेरा मेरी आत्मा को जकड़ गया,
मेरे हर सपने को अपवित्र कर गया।
लोग कहते हैं, "सब भूलो, बढ़ो आगे,"
पर वो रातें जलाती हैं रोज़ दिल के आगें।

अब मैं अपने घावों को हथियार बनाऊंगी,
उस काली परछाई को मिटा जाऊंगी।
ये श्राप नहीं, मेरी नई पहचान बनेगा,
हर टूटा सपना फिर से जवान बनेगा।

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