कश्मकश/ तृप्ति जैन

आज मैं थोड़ी कशमकश में हूंँ ,जिंदगी के थोड़े रश में हूंँ
अब इस भीड़ से निकलना चाहती हूंँ यार
क्योंकि कहीं पहुंचने के लिए कहीं से निकलना तो पड़ेगा ना
मैं जाना चाहती हूंँ यहांँ से कहीं दूर 
जहांँ ना रस्मों के बंधन हो ना परंपराओं की चिंता 
बस हो तो सिर्फ सुकून और सुकून भी ऐसा जो पलक झपकते ही कोई मुझसे छीन ना ले 
ना ही मन में ये चिंता हो कि वक्त होते ही निकलना होगा मुझे यहांँ से, ये वक्त की बंदिश ना ना जाने कितनी बार हमारे सुकून को हमसे छीन लेती है
और उसे जिम्मेदारियों का नाम दे दिया जाता है
तो क्या अब मैं इन जिम्मेदारियां से दूर अपने सुकून या सपने के लिए नहीं जी सकती , शायद नहीं क्योंकि अगर मैं चली गई अपने सपनों के पीछे तो,मेरे अपने इस सफर में छूट जाएंँगे
क्योंकि कई बार हमारे सपने अधूरे रह जाते हैं हमारे अपनों की वजह से ,फिक्र होती है उन्हें हमारी की कहीं हम सपनों के चक्कर में खुद को ही मुसीबत में ना डाल दें, मगर मैं दूर जाना चाहती हूंँ 
मैं भी उसे पक्षी की तरह उड़ना चाहती हूंँ जो आकाश में उड़ने के लिए ना जाने कितनी बार गिरता है, मगर फिर एक दिन अपने पंख फड़फड़ा कर निकल जाता है आसमान में कहीं दूर अगर उसे फिक्र करते हुए वहीं उड़ने ना दिया जाए, तो वह कैसे समझेगा अपनी काबिलियत को, बस तो क्यों ना निकला जाए एक बार इस सफर में 
क्योंकि ये प्यार ये मोहब्बत ये कसमें ये वादे, समाज परिवार ये रिश्ते नाते सब यहीं रह जाएंँगे
अंत में जाएगा तो सिर्फ ये की क्या किया हमने,अपनी जिंदगी को कैसे जिया हमने

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