क्यूं बैठी है तू नर्क में?/ज़िंदगी

देख रही हूं इन सुनसान रास्तों को, 
जहां कभी कभार न्याय का मेला लगता है।

देख रही हूं अंधेरे में डूबे इन चौराहों को,
जहां कभी कभार दीप और मोमबत्तियों का उजियारा होता है।

विडंबना देख रही हूं मानव के अटलता की
जहां अब नारी के खंडित अस्मिता का कोई रोश नहीं।

मानव ही मानव का सबसे बड़ा विषधर है 
अब मैं यह जान गई 

सच कहती है न्याय के मंदिर में बैठी वो अंधी देवी 
कानून अंधा है

मैं कहती हूं मानव जाती वास्तविक में नर्क का देवता है 
तीन माह की वो लड़की अब अस्सी बरस की हो गई है 

उसी सुनसान रास्ते और चौराहे पर बैठी 
अब वो एक और क्षणभंगुर विरोध का प्रदर्शन देख रही है 

क्यों पीड़ित प्रकृति का उपहास करते हो 
अपने दिखावे के अटलता से क्यों सत्ता पर विराजमान मृत प्रतिनिधियों से सत्य की गुहार करते हो।

रंगमंच का यह कैसा स्वरूप है 
उस संख्याओं में न जाने कितने ही अपमानित ह्रदय का समावेश है

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