देख रही हूं इन सुनसान रास्तों को, जहां कभी कभार न्याय का मेला लगता है। देख रही हूं अंधेरे में डूबे इन चौराहों को, जहां कभी कभार दीप और मोमबत्तियों का उजियारा होता है। विडंबना देख रही हूं मानव के अटलता की जहां अब नारी के खंडित अस्मिता का कोई रोश नहीं। मानव ही मानव का सबसे बड़ा विषधर है अब मैं यह जान गई सच कहती है न्याय के मंदिर में बैठी वो अंधी देवी कानून अंधा है मैं कहती हूं मानव जाती वास्तविक में नर्क का देवता है तीन माह की वो लड़की अब अस्सी बरस की हो गई है उसी सुनसान रास्ते और चौराहे पर बैठी अब वो एक और क्षणभंगुर विरोध का प्रदर्शन देख…
जानती हूं तुमने समझौता कर लिया है खुद से, देखा है मैंने तुम्हें तुम अब चुप रहने लगी हो, जहां तुम गलत नहीं भी होती हो, वहां अब तुम लड़ती नहीं हो, तुम्हें परिस्थितियों ने सहनशील बना दिया है, पर यह याद रखना तुम कौन हो, चुप भले ही रह लेना पर खुद से कभी खफा मत होना।
मेरा हर मौसम तुम हो, मेरे हर किस्से में तुम हो, मेरी गुजरे और आने वाले हर लम्हों में तुम हो, मेरे हर ढालते शाम की कहानी और सुबह की कविता में तुम हो, मेरे हाथों की लकीरों में एक उम्मीद बन के तुम हो, "तुम, हाँ तुम, तुम वो हो, जो मुझमे जीती हो"
क्या जंगल में भी जात होता है? क्या जंगल में भी धर्म होता है? क्या जंगल में भी उच्च और नीच होता है? क्या जंगल में भी मान और अपमान होता है? हम तो जंगल में नहीं रहते? हमारे अंदर तो चेतना शक्ति है? तो क्या हम मानव होते हुए भी? किसी जंगल वाले नियम से बंधे है?
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