अनसुनी आवाज हूॅं मैं
प्रकृति हूॅं मैं
हे मानव सुनो मेरा रुदन
सुनो मेरी व्यथा
हो गई हूॅं मैं जर्जर
कैसे तुमने मुझे क्षत विक्षत है करा।
धरती ने दिया तुम्हें अन्न और जल
धरती को ही कर दिया बंजर
धरा से जो पेड़ काटते जाओगे
स्वच्छ सुगंधित हवा के लिए तरस जाओगे।
धुआं और धूल भरी हवा में सांस लेने पर मजबुर हो जाओगे
अपने जीवन के हर क्षण को कम करते जाओगे।
नदी, समुद्र,झील, कुएं तालाब और जल को जो प्रदुषित करते जाओगे
आने वाले समय में जल की एक- एक बूंद को तरस जाओगे।
इमारतों पर इमारतें खड़ी करने के लिए
धरती से जो जंगल और पहाड़ों को मिटाओगे
मेघ बरसेंगे समय पर नहीं
भुस्खलन, बाढ़, तूफ़ान,सुनामी प्राकृतिक आपदाओं को स्वयं तुम लाओगें।
हर तरफ मचेगी चीख पुकार
मानवता की अंत की और तुम अपने कदम बढ़ाओगे।
हे मानव
प्रकृति हूॅं मैं
मुझसे जो खिलवाड़ करते जाओगे
अपनी बर्बादी को स्वयं तुम लाओगें।
हे मानव जाग जाओ अभी भी
करों मेरा सरंक्षण
पर्यावरण को बचाओं
आने वाली पीढ़ियों के लिए
जीवन जीने के आधार को मत मिटाओं।
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