सागर की लहरे/पूर्णिमा मंडल

मैं सागर किनारे खड़ी हूं अतृप्त प्यासी
अंजुरी भर पीना चाहती हूं सागर के पानी को
लेकिन हाथों में भर आता है सिर्फ खड़ा नमक और रेत
अंजलि उड़ेल देती हूं वापिस पर हाथों से रेत नहीं छूटती मेरे।
मैं उड़ना चाहती हूं बहुत ऊंचा दूर गगन की सीमा तक
पर अपने साथी के पंखों से ही घायल हो जाती हूं।
रेत का किरकिरापन और ऊंची नभ की उड़ान याद दिलाती है।
मुझे उस विगत की जब सागर किनारे
रेत पर उकेरा था नाम तुम्हारा 
और सागर के वक्ष स्थल पर शब्द 
उकेर उकेर कविता लिख डाली थी तुम पर।
आज उसी खुले आकाश तले उसी सागर के किनारे
खड़ी हूं प्यासी अतृप्त असहाय-सी मैं
सागर की लहरें वापस लौट जाती है 
मेरे पास आने से पहले ही
और आरंभ करने के बाद भी
पहुंच नहीं पाती हूॅं
मैं उन तक।
✍🏼 पूर्णिमा मंडल ✍🏼 
अनकहे एहसास

Post a Comment

0 Comments