मां की गोद में खेला बचपन,
पिता के साये में देखा जीवन।ह
र ख्वाब को उनकी आँखों ने सजाया,
हर कदम पर उन्होंने हमें संभाला।
चूड़ी की खनक, मेहंदी की महक,
उनके अरमानों से थी मेरी झलक।
बचपन से जवानी तक का सफर,
उनकी दुआओं से बना मुक्कमल।
पर आज ये क्यूँ हो गया,
अपना आँगन पराया हो गया।
दूसरी द्वार का हिस्सा बनी,
अपनी पहचान से जुदा हुई।
क्या ये रिश्तों की है परिभाषा,
या समाज की लिखी कोई भाषा।
दिल कहता है लौट जाऊं वहीं,
जहाँ थी मैं सिर्फ उनकी बेटी।
पर जानती हूँ, यही रिवाज है,
हर बेटी का यही तो समाज है।
पराई नहीं, उनकी अमानत हूँ,
जहाँ भी रहूं, उनकी इज्जत हूँ।
मां बाबा का हर सपना सजा दूं,
उनके जीवन को खुशियों से भर दूं।
यादों में उनका हर पल बसा है,
उनके बिना तो ये दिल अधूरा सा है।
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