एक स्त्री/सौम्या मिश्रा 'शायरा'

एक स्त्री

ब्याही जाती है जिस दिन 
उसी दिन अपने सपनों की पोटली
रख देती है घर के कोने में रखी देहरी पर
और दहलीज़ पर टँगे पर्दे को ही
 बना लेती है वो अपना दायरा

एक स्त्री

अपने घूँघट के धुंधलेपन में ही
कहीं खो सी देती है अपनी पहचान
वो किसी से कुछ भी न कहकर
अनमने मन से अपने भीतर ही
छुपा लेती है अनगिनत सवाल

एक स्त्री

अपने पाँव के पायल की शोर से
अपने होने का अहसास तो कराती है
किन्तु वो एक भी बार जोर से हँसती नही
ताकि कोई भी उसके संस्कारों पर 
प्रश्नचिन्ह न लगा दे

एक स्त्री

अपने मन की पीड़ा को बताती है
दाल में लगाती छौंक से
वो हरपल मौन रहती है और 
अपनी थकान को उभारती है
अपने चेहरे की मुस्कुराहट में


एक स्त्री

स्वंय को समेट लेती है
घर की उन चारदीवारियों में
वो समझा लेती है अपनी आँखों को
और फिर गूथ लेती है स्वंय को
संयम और संतोष की माला में


एक स्त्री

हर दिन बनाती है अपना अस्तित्व तवे पर
और फिर उसे सेंक देती है चूल्हे में
उसकी कल्पनाओं में है एक दुनिया
जो घूमती है रसोईघर मे उसके ही इर्द-गिर्द
फिर देख उसे खोजती है वो स्वयं को

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