आज मैंने पुन: अनुभव किया
इस पुरुष सत्तात्मक समाज में
एक स्त्री का अस्तित्व वास्तव में
कही सुरक्षित नहीं है
उसका स्त्री होना ही
उसके लिए अभिशाप है
हलांकि समाज जो कर रहा है
वह हत्या से भी बड़ा पाप है
आप जानते हैं या नहीं
मैं नहीं जानती
विवशता की हर स्वास पर
उसे क्यूँ जीना है
प्रत्येक क्षण उसके लिए डर है
घर के बाहर तो छोड़िए
घर के अंदर भी एक जानवर है
हाँ वो देखने में इंसान जैसा है
लेकिन भावना और विचार से
निहायत बर्बर पशु!
उसकी पशुता की कोई सीमा नहीं है
और इस पशुता को
प्रेम का नाम देने वालों की भी,
उसमें सबसे पहले आती है
उस पशु की जननी
फिर बहन, फिर कहे जाने वाले
कुछ रिश्ते दार
और उस स्री की माँ
भी सहभागिता कर रही है
दादी समझा रही हैं
पति है जो चाहे कर सकता है
क्या जाता है तुम्हारा?
तुम कोई अप्सरा नहीं हो,
ये सब तो सहना ही होता है,,
ये समाज की दृष्टि से कितना सही है
मैं नहीं जानती,
जानती हूँ तो केवल इतना
कि जितना पुरुष को स्वातन्त्र्य चाहिए
अधिकार चाहिए,
स्री को भी चाहिए,
किन्तु उसकी तरह नहीं!
वह प्रथम मन पर अधिकार चाहती है
फिर समर्पण,
वैसा ही जैसा वो कर रही है
और यदि ऐसा नहीं होता तो
वह स्वीकार नहीं कर पाती
आजीवन किसी की छाया तक को
लेकिन कौन समझता है
उसकी इस मनोदशा को
और फिर समाज कहता है
एक स्री को होना चाहिए पति परायण
इस तरह न चाहते हुए भी
उसे चुनना होता है
अनचाहा समर्पण केवल शरीर का
मन उसमें कहीं विद्यमान नहीं
आत्मा रोज मरती है धीरे धीरे
सिसकती है चीखती है, रोती है
किन्तु कोई समाधान नहीं
पशु पुरुष नहीं जानता आत्मा का स्पर्श
वह केवल अधिकार जनता है
उसकी दृष्टि में समर्पण का कोई अर्थ नहीं
स्री के पास मन जैसा भी कुछ है,
उसे परवाह नहीं
वह सोचता है एक मंगलसूत्र पहनाकर
उसने पा लिया है उस पर संपूर्ण अधिकार
अब वह चाहे तो उसे संवारे,
चाहे तो नोंच डाले
अब उसे कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं
कुछ जानने की इच्छा नहीं
बह भूखा है, और हर रात भूख से बिलख उठता है
एक पशु की तरह व्यवहार करता है,
और स्वयं को पुरुष कहता है,,
मैं उसे पशु कहूंगी,,
या कहूंगी कि पशु में भी
उससे अधिक सभ्यता होगी
सच कहूं तो घृणा सी हो गई
समाज की इस अजीब सी व्यवस्था से
जहाँ विवशता के पिंजरे में
जइम्मेदारियों को लादकर
छोड़ दिया जाता है
एक अकेली स्त्री को
बांध दी जाती है उसके पल्लू से
किसी बच्चे की हंसी
उसके कुछ समझ पाने से पहले
और फिर किया जाता है सहजत:
पशुता का घिनौना व्यवहार
जिससे वो दिन भर सहमी रहती है
और रात भर लाचार
अब तो उसके पास बचा ही नहीं है
मृत्यु चुनने का भी अधिकार
बस वही डरी रहती उस एक परछाई से
जिसे समाज ने बिना उसकी इच्छा के
चयनित किया है उसके लिए
पता नहीं कब इस डर से मुक्ति होगी
पता नहीं कब एक स्त्री ,
अपनी इच्छा से जी सकेगी,,
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