फिर नयनों के द्वार सजल हैं
अगणित अचल विचार सजल हैं
जिनमें क ई भाव मिश्रित हैं
पीड़ा और घाव मिश्रित हैं
एक कल्पना मिथक सुखों की
रखी गई जो नीव दुखों की
वह कितनी मजबूत हो गई
अश्कों की धारा से सींची
जब भी चाहा उसे हटा दूं
खुद को असफल ही पाया है
फिर अंतरमन भर आया
किसने कहा सिर्फ सिलवट है
चादर नहीं हृदय का तट है
जिसपर कोई और न होगा
चाहे कोई ठौर न होगा
हो भटकाव जगत भर का भी
तब भी चयनित होगे तुम ही
मौन रहेगा भार वचन का
ऐसे ही व्यवहार मनन का
बना रही हूँ अनुकृति जिसकी
पुन: तुम्हारी ही छाया है
फिर अंतरमन भर आया
कहूँ कहाँ क्या क्या संचित हो
विचलित करता है प्राणों को
हो भी जाओ कीसी अन्य के
सदा रहोगे हिय अरण्य में
इसका भान कदाचित् हो भी
पाए बिन तुमको दूं खो भी
तुमसे जुड़े सभी सुख और दुख
नित संग्रहित किया है सबकुछ
मन के सत्यलोक में मैंने!
फिर भी सतत् शून्य पाया है
यूँ अंतरमन भर आया है
फिर अंतरमन भर आया है
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