कैसे सजा लूं मैं घरों को लड़ियों से,
मै एक घर में हुआ अंधेरा देखकर आयी हूं।
रोटी का महज टुकड़ा भी ना टूटा मुझसे,
जब से उन गरीबों का ये डेरा देखकर आयी हूं।
यकीं करूं भी तो किसका यकीं करूं यहां,
अस्मत को लूटते एक लूटेरा देखकर आयी हूं।
पंछी कहां उमंग से पेड़ो पर चहचहाते है अब,
मै खामोश होता एक सवेरा देखकर आयी हूं।
मयखाने भी देख लिए और मदिरा भी देखी है,
मै उन जुल्फों का रूप भी घनेरा देखकर आयी हूं।
सलाखें ,कैद, कफ़स क्या होती है पता है मुझे,
मै पिंजरे में पंछियों का बसेरा देखकर आयी हूं।
दहेज, पर्दा, जात पात, तू क्या करेगी अब ' भारती',
अपनी ही बस्ती में कुरीतियों का घेरा देखकर आयी हूं।
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