पर्यावरण/अभय प्रताप सिंह

ओस की बूँदों का पत्तों पर मोतियों सा चमकना, 
रातरानी के बाद भोर में गुलाबों का महकना, 
पंछियों का बगिया में हर ओर चहकना, 
इस प्राकृतिक सौंदर्य में स्वभाविक है मन का बहकना, 
कितना सुंदर होता था ये प्राकृतिक परिदृश्य, 
बढ़ती आबादी ने बिगाड़ दिया जंगलों का भविष्य, 
कटने लगे पेड़, बढ़ने लगी गाड़ियां यूँ ही खेल-खेल में,
विवश होकर रहने लगे हम जहरीली गैसों के जेल में,
आधुनिकता के पीछे हो गया मनुष्य इतना अँधा, 
पर्यावरण के साथ खिलवाड़ हो गया उसका पसंदीदा धंधा, 
फैक्ट्री के कचड़ो से निर्मल नदियाँ हुई तेजाबी, 
हवाओं में भी घुला ज़हर, अब सांसो पर बात आयी, 
मोबाईल के रेडिएशन ने पंछियों को ऐसा भटकाया,
एक बार जो उड़ा पंछी लौटकर फिर नहीं आया, 
लेनी होगी सीख, लगाने होंगे वृक्ष कचड़ों पर देना होगा विषेश ध्यान, 
तभी पुनः स्थापित होगा निर्मल, स्वच्छ वातावरण और जीवन होगा आसान।

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