आज और कल/कवीता संग्रस कन्हेरीकर

न जाने क्यूँ आजकल अंधेरा जादा है । 
आँसूओ कि भी दोस्ती कि अदा है । 

टुटा फुटा आज हिस्सो में बट गया ।
भुला बिसरा अतीत दिल में बस गया ।

समझौते में शब्द कहीं खो गए। 
आदत हो गई, सभी से कट गए।  

मायूस सुबह में ,शाम भी बुझ गई ।
रातों के साए में नींद दुर चली गई। 

सोच ने अंदर तक खोखला कर दिया ।
सहने कि ताकद ने अकेला कर दिया ।

कोई नही जीसे अपना कहे ।
दर्द को गले लगाए चलते गए। 

बीता हुआ कल पुकारता है हमे ।
डबडबाई ऑंखो से धुंदलाता है हमे ।

पुछनेवाले मिले,बांटने वाले कोई नही थे।
परायों कि उस भिड में अपने नही थे ।

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