परंपरा/कवीता संग्रस कन्हेरीकर

सादगी भरी परम्परा ।
पीढियों से चले आ रहे रिवाज ।
हर एक घर सजा सवरा। 
धीरे धीरे होने लगा नजर अंदाज। 

पैर छूने से लेकर, दही शक्कर तक।
माथे पर बिंदी से,माथा टेकने तक। 
आंगन कि रंगोली से, शाम के दिये तक। 
बदल रहा कणकण, वक्त कि हरकत। 

लज्जत उस संस्कृति में ।
जहां पत्थर भी गाते है ।
खुशबु उस परम्परा में ।
छोटी छोटी खुशियो पर नाचते है । 

तौर तरीके पश्चिम देशीय, 
वातावरण बदलता गया ।
युवा पीढी बडी सहनीय। 
बेवक्त कार्य काल ने जकड लिया।

रिवाज कि आनाकानी, 
जीवन शैली की मजबूरी ।
बदलाव कि पकड अंजानी ।
किमत चुकानी पडी भारी ।

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