भावनांओ को शब्दों में पिरोकर , कल्पना कि कलम से , उतारती हुँ कागजपर , मेरा सुकुन मेरा प्यार हल्के से । मेरे शब्द पहुंच सके सब तक , जान ले कविता में छुपे दर्द को । जमीन से लेकर क्षितीज तक । तब मनाएँ अपनी कामयाबी को । हर दिन घटती है घटनाएं निसर्ग बदल रहा करवटें गीर रही है मर्यादा कि चट्टानें सुकून तब जब भ्रष्टाचार हटे नही देख सकते हत्या जानवरों कि । लढ रहे समाज सेवक देखकर , आती है सुघंद मेहकि मेहकि । सुकून होता है कुछ बचाकर ।
परीघ में रहकर भी खाई का एहसास होता है । नही जीना हमे अभी , डुब जाने का आभास होता है । छलनी हुए दिल में । जज़्बात भी कहीं खो गए। छाँव नही रही तो , घाव भी बढ गए। राह को मोड़ना था । हम मोड पर रुक गए। उसूलों को मंजुर नही था। अपने-आप से जुड गए। दिल से समझौता करते करते थक गए। विचार का समर्थन झूठा, नकाब को अपनाते गए।
जल रहे है जंगल पिघल रहे है पहाड़ न जाने किस तरह की है ये प्रकृति की दहाड़ | ये जहान, ये हरियाली ये पेड़, ये आसमान की लाली भरा पूरा कुदरत-ऐ-मंज़र मत बिगाड न जाने किस तरह की है ये प्रकृति की दहाड़ | चलो बचाके रखे बच्चों के लिए छोटीसी दुनिया हमने तो जी ली हमारी ज़िंदगी उनके लिए ना छोडे गंदगी बहा ना ले जाए सबकुछ तूफान और बाढ न जाने किस तरह की है ये प्रकृति की दहाड़ | दुशीत पर्यावरण प्लास्टिक का कहर रोम रोम कांपता है देखके जानवरो के हाल मानव जाती का कांड न जाने कि तरह कि है ये प्रकृती की दहाड ।
गाने उस जमाने के , याद दिलाते है बचपन कि । सुर वो संगीत के , आवाज देते है अपनोंकि । हर एक गीत के साथ, जुड़ी है एक कहानी । घटी हुई कोई खास बात। ताउम्र यादों कि जुबानी । सुरीले शब्दों कि रागिनी, दिल के तारों को बजा देती है । आँखो कि चीलमन से सलोनी , भुले बीसरे चेहरे दिखा देती है । रहो किसी हाल में । मायने नही किसी जगह से । पहूँच जाते है सूरों में । जग में अलग से ।
सादगी भरी परम्परा । पीढियों से चले आ रहे रिवाज । हर एक घर सजा सवरा। धीरे धीरे होने लगा नजर अंदाज। पैर छूने से लेकर, दही शक्कर तक। माथे पर बिंदी से,माथा टेकने तक। आंगन कि रंगोली से, शाम के दिये तक। बदल रहा कणकण, वक्त कि हरकत। लज्जत उस संस्कृति में । जहां पत्थर भी गाते है । खुशबु उस परम्परा में । छोटी छोटी खुशियो पर नाचते है । तौर तरीके पश्चिम देशीय, वातावरण बदलता गया । युवा पीढी बडी सहनीय। बेवक्त कार्य काल ने जकड लिया। रिवाज कि आनाकानी, जीवन शैली की मजबूरी । बदलाव कि पकड अंजानी । किमत चुकानी पडी भारी ।
न जाने क्यूँ आजकल अंधेरा जादा है । आँसूओ कि भी दोस्ती कि अदा है । टुटा फुटा आज हिस्सो में बट गया । भुला बिसरा अतीत दिल में बस गया । समझौते में शब्द कहीं खो गए। आदत हो गई, सभी से कट गए। मायूस सुबह में ,शाम भी बुझ गई । रातों के साए में नींद दुर चली गई। सोच ने अंदर तक खोखला कर दिया । सहने कि ताकद ने अकेला कर दिया । कोई नही जीसे अपना कहे । दर्द को गले लगाए चलते गए। बीता हुआ कल पुकारता है हमे । डबडबाई ऑंखो से धुंदलाता है हमे । पुछनेवाले मिले,बांटने वाले कोई नही थे। परायों कि उस भिड में अपने नही थे ।
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