नजरिया बदल के जब देखा
गोधूलि बेला में
तू पश्चिम की लालिमा सा दिखा।
अरुणमयी विभा सांझ की
और अरसो से आराध्य की आस।
उठती पलको में प्रणय झलक
और निशाकर की आभा सा मुखबिंदु
बाट जोहती वो रसिक युगों से
जमघट में वो एक अभिहार केंद्रबिंदु।
क्षितिज के ओसारो तले वो
एक आशियाना
संग तेरे बसाना चाहती है
प्रेम वृष्टि में जलमग्न हो
शामियाना तेरा
तेरी रसिक बस दो पल साथ तेरे बिताना चाहती है।
वो वक्त से हार गई हर उषा को भूल गई
बस विरह और तेरा स्मरण शेष है
कभी सुन दो क्षण बैठ पास
शायद ये भी द्वापर के प्रेम का अवशेष है ।
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