ख़ामोशी का शोर/गौरव अग्रवाल "मन"

मुद्दतों बात आज फिर आमना सामना हो गया,
जाना पहचाना शख़्स आज फिर अनजाना हो गया,
उसके चेहरे पर एक अनजाना सब दर्द जरूर था,
हां आज उसकी ख़ामोशी में एक अजीब सा शोर जरूर था...

देख कर भी हमें ऐसे देखा जैसे जानते ही नहीं,
पास से कुछ यूं निकल गए जैसे पहचानते ही नहीं,
दिल और जुबान में तालमेल जरूर कुछ कम था,
हां आज उसकी ख़ामोशी में एक अजीब सा शोर जरूर था... 

पुराने जख्मों को तो हरा करके चले गए,
न जाने कितने टूटे ख्वाब वह दिल में फिर जगा गए,
एहसास इस बात का उनको जरा भी नहीं था 
हां आज उसकी ख़ामोशी में एक अजीब सा शोर जरूर था...

कभी एक पल भी नहीं गुजरता था हमारे बिना,
जाते भी नहीं थे कहीं हमसे पूछे बिना,
खुद से ज्यादा एतबार जिसको हम पर था,
आज उसकी ख़ामोशी में एक अजीब सा शोर जरूर था...

चंद लम्हों के बाद फिर से आमना सामना हो गया,
जो हमने सोचा ना था वह वाकया हो गया,
इस बार उसने हमें देखा और शायद पहचान गए,
पास से तो जरूर गुजरे पर खुद की पलके भिगो गए...

उन भीगी पलकों ने कह दिया कमबख्त दिल का हाल 
जिसे सोच सोच कर "मन" हो रहा था बेहाल,
लगा कि उसका भी जख्म हरा प्रखर था,
हां अब उसकी ख़ामोशी में एक समझने वाला शोर जरूर था...

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