मिटा न मन से ऊँच-नीच का भेदभाव
हुआ न अंधी परम्पराओं मे बदलाव
हो रहा जाति-पाति का टकराव,
क्या समाज हमारा बदल रहा है?
आज भी चारदिवारियों से आती है सिसकियाँ
आज भी सन्नाटों से डरती हैं लड़कियाँ
आज भी स्त्री पहनती प्रथाओं कि बेड़ियाँ,
क्या समाज हमारा बदल रहा है?
झूठे आडम्बरों को कोई धर्म बता रहा है
किसी गरीब को रुलाकर अमीर हँस रहा है
इंसान ही इंसानियत को कुचल रहा है,
क्या समाज हमारा बदल रहा है?
दौलत के खातिर लोग कुछ भी कर जाते हैं
शोहरत पाने को दो कौड़ी मे बिक जाते हैं
चंद खुशियों के खातिर लोग स्वार्थी बन जाते हैं,
क्या समाज हमारा बदल रहा है?
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