कोरी किताबें मुझको पुकारने लगी।
मैं दौड़ता हुआ जाने लगा उनके पास,
धीरे धीरे उनके हर पन्ने लिखने लगा।
कभी दुसरे के दर्द और खुशी को समझकर,
धीरे धीरे उनकी भावनाओं को लिखने लगा।
कभी खुद के लिए तो कभी दूसरों के लिए,
जब भी मौके मिलते रहे तब लिखने लगा।
जब-जब विचार आते रहे मेरे मन में,
तब-तब हाथ मेरा काम करने लगा।
दूसरों की तकलीफों को समझने लगा,
मैं किताबों का हर पन्ना लिखने लगा।
कभी धूप में कभी छांव में कभी बरसात में,
मैं हर पल किताबों का हर पन्ना लिखने लगा।
धीरे धीरे कुछ मेहनत करते हुए ही सही,
मैं कोरी किताबें को भरने लगा।
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