कुंभ के मेले में, भीड़ के बीच, चमका एक चेहरा, अद्भुत, अनोखा, अतीत। हाथों में रुद्राक्ष, आँखों में बात, मोनालिशा के व्यक्तित्व ने जगाई सौगात। भोली मुस्कान, सादगी का श्रृंगार, शब्दों में जादू, मन में संस्कार। जो देखा, वही जुड़ गया, उसका किरदार हर दिल को छू गया। प्रयागराज की गलियों में जो बसी, माटी की खुशबू में वो रची। मोनालिशा, उसका नाम है, कुंभ का दीप, मालाएँ बेचना जिसका काम।
हर शाख जो कांपी,हर पत्ता जो गिरा, धरती ने सहा,एक घाव जो गहरा। पेड़ कटे,जंगल मिटा,सब सूना हो गया, हर कोना वीरान,जीवन कहीं खो गया। क्या यही है विकास,जो प्रकृति को रुलाए, सरकार को क्यों इसकी सुध न आए? हर डाल,हर पत्ता अब गवाही देगा, धरती का दर्द सभी को सुनाई देगा। 'बिश्नोई' कर रहा पुकार कि धरती सजे, कसम खाओ सब मिलकर कि हर पेड़ बचे।
शब्दों में छिपा, अनगिनत संसार, कभी खुशियों की धुन, तो कभी दर्द का चित्कार। जैसे मोती, बिखरे भावों के धार, बुनते हैं सपने, देते हैं आकार। शब्दों की छाया में, दिल को सुकून, जादू से भर दें, हर सूना जून। गूंजते हैं ये, सन्नाटे के पार, शब्दों का जादू, अद्भुत और अपार।
नील गगन में मस्त मगन, पंख पसारे एक पंछी उड़ चला। न कोई भय, न कोई बंधन, सपनों के संग, सीमा पार चला। एक उड़ान भरकर हर सीमा को कर दिया पार सहारा हौसले का बना। वो पंछी न केवल उड़ा साथ हमें भी दिखा गया- सपनों को सजाना, हौसले से निभाना, हर बाधा के पार, मंजिल तक जाना।
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